Thursday, March 3, 2016

सीता का वन में चलने के लिए अधिक आग्रह, विलाप और घबराहट देखकर श्रीराम का उन्हें साथ ले चलने की स्वीकृति देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

त्रिंशः सर्गः
सीता का वन में चलने के लिए अधिक आग्रह, विलाप और घबराहट देखकर श्रीराम का उन्हें साथ ले चलने की स्वीकृति देना, पिता-माता और गुरुजनों की सेवा का महत्व बताना तथा सीता को वन में चलने के लिए तैयारी के लिए घर की वस्तुओं का दान करने की आज्ञा देना

श्रीराम के समझाने पर, सीता ने ये वचन कहे
भय, प्रेम व अभिमान से, थे कथन वे भरे हुए

कर आक्षेप राम पर बोली, पिता जानते थे क्या मेरे
 पुरुष मात्र देह से हैं आप, स्त्री हैं कार्य कलाप से

 कह सकते अज्ञान वश लोग, मुझे छोड़ गये यदि आप
सूर्य समान राम के भीतर, तेज, पराक्रम का है अभाव

किससे भय आपको होता, किस कारण आपको विषाद
जो मात्र आश्रित आपकी, मुझ सीता का करते त्याग

सत्यवान की अनुगामिनी, जिस प्रकार हुई थी सावित्री
मानें निज आज्ञा के अधीन, उसी तरह ही आप मुझे भी

परपुरुष पर रखे दृष्टि, जैसे कोई कुल कलंकिनी
साथ चलूंगी मैं आपके, न देखूं परपुरुष मन से भी

जिसका विवाह हुआ आपसे, चिरकाल तक संग रही जो
सौंप रहे दूसरे के हाथ, सती-साध्वी उस पत्नी को

शिक्षा आप मुझे देते हैं, अनुकूल जिसके चलने की
राज्यभिषेक रुका जिस हित, अधीन नहीं उसके रहूंगी

उचित नहीं इसी कारण, मेरे बिना वन को जाना
हो वनवास, स्वर्ग या तप, साथ आपके चाहूँ रहना

जैसे उपवन के विहार या, सोने में नहीं होता कष्ट
उसी प्रकार वन में चलने पर, जान पड़ेगा नहीं परिश्रम

कुश, सरकंडे, कांटे, सींक, रुई समान सुखद ही होंगे
धूल बनेगी चन्दन जैसी, संग आप यदि मेरे होंगे

घासों पर भी सो सुख पाऊं, पलंगों पर अधिक सुख होगा ?
निज हाथों से देंगे आप, फल, मूल अमृत सम होगा

ऋतू अनुकूल फल खा रहूँगी, महल, माँ-पिता याद न आयें
प्रतिकूल व्यवहार न होगा, मेरे कारण कष्ट न पायें

नहीं कठिन मेरा निर्वाह, जहाँ आप हैं वहीं स्वर्ग है
बिना आपके नर्क समान, यही एकमात्र निश्चय है

नहीं कोई घबराहट वन की, ले न चले संग आप यदि
विष आज ही मैं पी लूँगी, शत्रु अधीन हो नहीं रहूँगी

मुझे त्याग यदि वन जाएँ, दो घड़ी जीवन नहीं सम्भव
विरह शोक नहीं सह सकती, कैसे सहूँगी चौदह बरस

इस प्रकार करके विलाप, सीता दुःख से शिथिल हुई
पकड़ पति को कर आलिंगन, फूट फूटकर वह रोयीं

जैसे कोई घायल हथिनी, सीता मर्माहत हुई थीं
अरणी जैसे आग प्रकटाती, वैसे वे आँसूं बरसातीं

स्फटिक समान निर्मल जल बहता, उनके दोनों नेत्रों से
जल धारा जैसे बहती हो, मानों दो सुंदर कमलों से 

No comments:

Post a Comment