Thursday, November 5, 2015

श्रीराम की कैकेयी के साथ बातचीत और वन में जाना स्वीकार करके उनका माता कौसल्या के पास आज्ञा लेने के लिए जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकोनविंशः सर्गः

श्रीराम की कैकेयी के साथ बातचीत और वन में जाना स्वीकार करके उनका माता कौसल्या के पास आज्ञा लेने के लिए जाना

 थे अप्रिय वचन अति वे, मृत्यु समान कष्टदायक भी
किन्तु व्यथित न हुए राम सुन, कैकेयी से बात कही

ऐसा ही हो, माँ जाऊँगा, जटा, चीर धारण करके मैं
किन्तु जानना यह चाहता, पिता बोलते नहीं क्यों मुझसे

दुर्जय हैं वे और समर्थ, शत्रु का दमन करने में
हो प्रसन्न पहले की भांति, नहीं बोलते हैं मुझसे

क्रोध करो न इस प्रश्न पर, निश्चय ही वन मैं जाऊंगा
 पिता हितैषी और गुरु हैं, हर आज्ञा इनकी मानूँगा

किन्तु एक ही दुःख है मुझको, स्वयं क्यों न यह बात कही
भरत हेतु सब तज सकता हूँ, सिर्फ तुम्हारे कहने पर ही

क्यों न फिर उनके कहने पर, वह भी प्रिय तुम्हारा जो 
 नहीं करूंगा वह कार्य, यह मेरी ओर से इन्हें कहो

धीरे-धीरे अश्रु बहाते, पृथ्वीनाथ क्यों तकें धरा को
लज्जाशील बने हैं राजा, इन्हें शीघ्र आश्वासन दो

आज ही राजा की आज्ञा से, द्रुत अश्वों पर जाएँ दूत
भरत आयें मामा के घर से, मैं जाऊँ वन को तुरंत

श्रीराम की बात सुनी जब, हुई प्रसन्न अति कैकेयी
वन जायेंगे कर विश्वास, प्रेरित कर फिर यह बोली

ठीक कह रहे, ऐसा ही हो, दूत बुलाने भरत को जाएँ
तुम उत्सुक स्वयं वन जाने को, शीघ्र अति यह भी हो जाये

लज्जित होने के कारण ही, राजा स्वयं नहीं कहते यह
दुःख न करो इसका तुम कोई, नहीं विचारणीय है यह

जाओगे नहीं तुम जब तक, नहीं स्नान न करेंगे भोजन
हा ! कहकर हुए मूर्छित, शोक में डूबे राजा यह सुन

गिरे सुवर्ण भूषित पलंग पर, उन्हें उठाया श्रीराम ने
चोट खाए अश्व की भांति, जाने को उतावले हुए वे

नहीं चाहता रहना जग में, बन कर मैं उपासक धन का
मैंने भी ऋषियों की भांति, लिया आश्रय शुद्ध धर्म का  

पूज्य पिता का कार्य करूँगा, प्राणों का भी नहीं लोभ है
पूर्ण हुआ ही समझो इसको, इससे बढ़कर नहीं धर्म है

यद्यपि नहीं कहा उन्होंने, फिर भी वन में वास करूँगा
मुझ पर है अधिकार तुम्हारा, आज्ञा का पालन करूँगा

किन्तु न मुझसे कहकर तुमने, कहा पिता से इस कार्य को
कष्ट दिया उनको, लगता है, नहीं जानती कुछ तुम मुझको

कौसल्या माँ से लूँ आज्ञा, सीता को भी समझा-बुझा लूँ
इसके बाद आज ही मैं, दंडक वन को प्रस्थान करूं

भरत करें राज्य का पालन, सेवा करें पिता की वह
ऐसा प्रयत्न सदा तुम करना, क्योंकि धर्म सनातन है यह

श्रीराम का वचन सुना तो, दशरथ हुए अति व्याकुल
कुछ न बोल सके दुःख से वे, फूट-फूट कर रोये केवल

महातेजस्वी श्रीराम तब, कर प्रणाम पिता-माता को
बाहर आये उस भवन से, निज सुहृदों से मिलने को

इस अन्याय को देखकर, सुमित्रानंदन कुपित हुए
तथापि अश्रु आँखों में भर, उनके पीछे-पीछे गये

वन जाने की आकांक्षा अब, उदित हुई राम के मन में
अभिषेक की सामग्री को, कर अनदेखा आगे बढ़ गये

अविनाशी कांति से युक्त थे, शोभा उनकी थी पहले सी
जैसे क्षीण हुआ चन्द्रमा, त्याग नहीं करता शोभा की

राज्य छोड़ने का अल्प भी, नहीं विकार चित्त पर आया
लोककमनीय श्रीराम थे, जीवन्मुक्त हो ज्यों महात्मा

सुंदर छत्र लगाने की तब, की मनाही, चंवर भी रोके
रथ लौटा, कर विदा सभी को, कौसल्या के महल में गये

मन को वश में कर रखा था, नहीं विकार किसी ने देखा
स्वाभाविक उल्लास न त्यागा, जैसे चन्द्र शरदकाल का

मधुर वचन से सम्मानित कर, सब लोगों को विदा किया
गये निकट अपनी माता के, पीछे गये पराक्रमी भ्राता   

गुणों में थे वे राम समान, किया प्रवेश उस भव्य भवन में
लौकिक दृष्टि से हुई थी हानि, किन्तु न दुख माना राम ने


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ. 

2 comments:

  1. जय मां हाटेशवरी....
    आप ने लिखा...
    कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
    हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
    दिनांक 06/11/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की जा रही है...
    इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
    टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    कुलदीप ठाकुर...


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  2. बहुत बहुत आभार !

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