Wednesday, March 12, 2014

गाधि की उत्पत्ति, कौशिकी की प्रशंसा,

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

चतुस्त्रिंशः सर्गः

गाधि की उत्पत्ति, कौशिकी की प्रशंसा, विश्वामित्रजी का कथा बंद करके आधी रात का वर्णन करते हुए सबको सोने की आज्ञा देकर शयन करना

रघुनन्दन से कहा मुनि ने, ब्रह्मदत्त जब चले गये
पुत्रेष्टि यज्ञ किया तब, पुत्रहीन राजा कुशनाभ ने

यज्ञ काल में राजा कुश ने, कुशनाभ को दिया आश्वासन
पुत्र पाओगे ‘गाधि’ नामक, परम धर्मात्मा तुम निज समान

अक्षय कीर्ति मिलेगी उससे, ऐसा कहकर राजर्षि कुश
प्रविष्ट हुए अनंत आकाश में, चले गये वे ब्रह्मलोक

वे परम धर्मात्मा ‘गाधि’, सुनो राम हे ! पिता थे मेरे
‘कौशिकी’ भी कहलाता, हुआ हूँ उत्पन्न कुश के कुल में

राघव ! मेरी ज्येष्ठ बहन भी, उत्तम व्रत का पालन करती
ऋचीक मुनि को ब्याही गयी थी, नाम था जिसका सत्यवती

 अनुसरण जब किया पति का, देह सहित वह स्वर्ग गयी
परम उदार महानदी बन, कौशिकी रूप में भू पर बहती

मेरी बहन जगत के हित में, ले आश्रय हिम आलय का
नदी रूप में हुई प्रवाहित, अति रमणीय वह पुण्य सलिला

उसके तट पर रहता हूँ मैं, बहन से मुझको स्नेह अति
सत्य धर्म में है प्रतिष्ठित, सरिताओं में श्रेष्ठ कौशिकी  

सिद्धि हेतु आया सिद्धाश्रम, तज कर मैं सान्निध्य बहन का
सिद्धि प्राप्त हुई अब मुझको, है प्रताप तुम्हारे तेज का

शोणभद्र तटवर्ती देश का, तुमने जो परिचय पूछा था
अपनी, निज कुल उत्पत्ति का, विवरण तुमसे सभी कहा




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