Wednesday, January 18, 2012

प्रारब्ध विचार


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


प्रारब्ध विचार

आत्म चिंतन में जो रत है, जग उसको यदि भासित होता
फल भोग भी यदि वह पाए, प्रारब्ध ही वह कहलाता

जब तक सुख-दुःख अनुभव होते, प्रारब्ध तब तक माना जाता
क्रिया हुए से ही फल मिलता, कर्म बिना कोई फल न पाता

जग जाने पर स्वप्न टूटता, स्वप्न, कर्म लीन हो जाते
बोध हुआ जब निज स्वरूप का, संचित कर्म नष्ट हो जाते

सपने में जो पाप-पुण्य हों, जग कर उनका फल न मिलता
जो स्वयं को असंग जानता, लिप्त नहीं कर्मों से होता

जैसे घट में मदिरा भी हो, घटाकाश अछूता उससे
है उपाधि ऊपर ऊपर ही, नहीं आत्मा लिप्त हो उससे

कर से छूटा हुआ बाण ज्यों, लक्ष्य भेद कर ही रहता
ज्ञान पूर्व किया कर्म जो, अपना फल लाकर ही रहता

प्रारब्ध बड़ा बलवान सभी का, उसे भोगना ही पड़ता
संचित और क्रियमाण का, ज्ञानी नाश किया करता

जो सदा ब्रह्म में स्थित, प्रारब्ध उसको नहीं सताता
जाग्रत भाव में सदा रहे जो, अहं, मम से मुक्त हो जाता

न तो मिथ्या सिद्ध करे वह, न ही संग्रह में है रूचि
फिर भी यदि प्रवृत्ति में रत, निद्रा अभी टूटी ही नहीं

   





 

3 comments:

  1. shuddh gyaan.....
    adbhut...

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  2. @ जाग्रत भाव में सदा रहे जो, अहं, मम से मुक्त हो जाता
    बहुत सुन्दर, आभार!

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  3. जब तक सुख-दुःख अनुभव होते, प्रारब्ध तब तक माना जाता
    क्रिया हुए से ही फल मिलता, कर्म बिना कोई फल न पात………………अति उत्तम संयोजन्………।

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