Tuesday, August 9, 2011

एकादशोध्यायः विश्वरूपदर्शन (अंतिम भाग)


एकादशोध्यायः
विश्वरूपदर्शन (अंतिम भाग)

हो भयभीत कांपता अर्जुन, बोला यह गदगद वाणी से
नाम तुम्हारा ले भक्ति से, जग हर्षित है गुण, प्रभाव से

क्यों न करें नमन सब तुमको, तुम ही परमब्रह्म हो केशव
वही सच्चिदानन्द तुम्हीं हो, सत् असत् से परे जो अक्षर

आदिदेव सनातन हो तुम, परम आश्रय, परमधाम हो
हे अनंत, व्याप्त हर कहीं, हे देवेश, जगन्निवास हो

यम, वायु, अग्नि स्वरूप हो, चन्द्र आदि देवगण तुमसे
बारम्बार नमन तुम्हें हो, ब्रह्मा भी हैं उपजे तुमसे

हो अनंत शक्तिशाली तुम, नमन तुम्हें चहुँ ओर से करता
आगे से भी पीछे से भी, सब और से तुमको नमता

नहीं जानता जब था तुमको, अपना सखा मात्र मानता
यादव, कृष्ण, सखा कहकर जब, प्रेमवश था तुम्हें बुलाता

कभी प्रमादवश या विनोद में, मुझसे तुम हुए अपमानित
सब अपराध क्षमा कर दो, हे सारे जग से सम्मानित

कोई नहीं आपके जैसा, श्रेष्ठ भला कैसे हो सकता
साष्टांग दंडवत करके, मैं इन चरणों में नमता

पिता पुत्र के मित्र मित्र के, पति पत्नी को करे क्षमा
वैसे ही हे केशव तुम भी, मुझ दोषी को करो क्षमा

कभी न देखा पहले ऐसा,  रूप तुम्हारा हर्ष भर रहा
साथ-साथ ही व्याकुल भी हूँ, भीतर मेरे भय भर रहा

हे केशव ! प्रसन्न हो मुझपर, सुंदर विष्णु रूप बनाओ 
गदा, चक्र ले धर किरीट, रूप चतुर्भुज मुझे दिखाओ

केशव बोले तब अर्जुन से, रूप विराट जो तुझे दिखाया
योगशक्ति को धारण करके, तेजोमय वह रूप बनाया

न ही वेद, यज्ञ न अध्ययन, न ही दान न उग्र तपों से
मानव मुझको देख न पाते, मिलता नहीं कभी कर्मों से

मूढ़भाव को तज दे अर्जुन, न ही हो भय से व्याकुल
प्रेमपूर्ण हो देख रूप यह, शंख, चक्र, गदा, पदम युक्त

संजय बोले फिर केशव ने, रूप चतुर्भुज दिखलाया
भय से मुक्त किया अर्जुन को, धीरज उसके मन छाया

शांत रूप वह देख कृष्ण का, स्थिर चित्त हुआ अर्जुन का
प्राप्त हुआ फिर सहज भाव को, धन्यवाद किया केशव का

कृष्ण कह उठे रूप चतुर्भुज, देव भी नहीं देख पाते
अति दुर्लभ हैं दर्शन इसके, वे भी लालायित रहते

तप, दान से न ही वेद से, यज्ञों से यह देखा जाता
केवल भक्ति ही द्वार है, जिससे कोई मुझ तक आता

सब कर्मों को अर्पण करके, जो मेरे परायण रहता
वैर नहीं है जिसके मन में, अनासक्त ह मुझको पाता
  


2 comments:

  1. सुन्दर, आपकी आस्था को मेरा शत शत नमन स्वीकार कीजिये.....


    कई जिस्म और एक आह!!!

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  2. तप, दान से न ही वेद से, यज्ञों से यह देखा जाता
    केवल भक्ति ही द्वार है, जिससे कोई मुझ तक आता
    भक्ति से मुक्ति का मार्ग ... कई संतों ने सुझाया है। आपका यह श्रृंखला मुझे बेहद पसंद है।

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