Friday, July 29, 2011

दशमोऽध्यायः विभूतियोग (अंतिम भाग)



दशमोऽध्यायः
विभूतियोग (अंतिम भाग)

सर्वभक्षी काल भी मैं हूँ, जन्म सभी का मुझसे जान
कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, क्षमा, धृति भी मान

सामवेद का गीत वृह्त्साम, गायत्री छंदों में हूँ
सब मासों में मार्गशीर्ष हूँ, ऋतुराज वसंत भी हूँ

छलियों में जुआ भी मैं हूँ, तेजवान का तेज है मुझसे
साहस, शौर्य, विजय भी मैं हूँ, सत्व सात्विकों का मुझसे

वासुदेव वृष्णियों में हूँ, अर्जुन वीर पांडवों में
व्यासदेव मुनियों में श्रेष्ठ, शुक्राचार्य हूँ कवियों में

दमन के साधन में दंड हूँ, विजयाकांक्षी की नीति
मैं ही मौन रहस्यों में हूँ , बुद्धिमानों की मैं ही मति

जनक बीज हूँ इस सृष्टि का, मुझसे परे नहीं है कोई
चर-अचर जो भी इस जग में, मेरे सिवा न उसका कोई

अंत नहीं है विभूतियों का, संक्षेप से तुझे कहा
एक अंश मात्र से उपजा है, सौंदर्य इस महा जगत का

जहाँ-जहाँ भी पड़े दिखाई, कांति, सौंदर्य हे अर्जुन !
वहाँ–वहाँ मुझको ही देख, मेरा ही है सभी सृजन

क्या करेगा बहुत जान के, इतना ही तू जान ले पार्थ
मेरे एक अंश में स्थित, योगशक्ति है मेरी अद्भुत 

Thursday, July 28, 2011

दशमोऽध्यायः विभूतियोग (शेष भाग)


दशमोऽध्यायः
विभूतियोग (शेष भाग)

सत्य मानता वचन आपके, जो कुछ आप मुझे हैं कहते
लीलामय स्वरूप आपका. देव, असुर दोनों न जानते

हे भूतेश, जगत्पते, भूतभावन, हे पुरुषोत्तम !
स्वयं ही तुम स्वयं को जानते, देव देव, हे पुरुष परम !

आप स्वयं ही कह सकते हैं, दिव्य विभूतियों का वर्णन
व्याप्त हो रहे जिनके द्वारा, इस अखिल ब्रह्मांड में हर क्षण

कैसे चिंतन करूं आपका, कैसे मैं तुमको जानूँ
किन रूपों में ध्याऊं तुमको, केशव मैं कैसे पाऊँ

निज शक्ति व परम विभूति, सविस्तार मुझे कहिये
तृप्त नहीं होता मन मेरा, सुनकर अमृत वचन तुम्हारे

मुख्य-मुख्य रूपों का वर्णन, सुन मेरे मुख से हे अर्जुन !
है असीम वैभव मेरा, संभव नहीं सुनाना पूर्ण

जो सबके अंतर में बसता, परमात्मा मुझको ही जान
आदि, मध्य, अंत भी मैं हूँ, हे अर्जुन तू मुझको मान

आदित्यों में विष्णु हूँ मैं, सूर्य ज्योतियों में प्रचंड
मरुतों में मरीचि हूँ मैं, नक्षत्रों में पावन चन्द्र

सामवेद वेदों में हूँ मैं, देवताओं का राजा मान
इन्द्रियों में मन हूँ मैं, जीवों में चेतना जान

रुद्रों में शंकर भी मैं हूँ, यक्ष, राक्षसों में कुबेर
वसुओं में अग्निदेव हूँ, पर्वतों में हूँ सुमेरु

पुरोहितों में बृहस्पति हूँ, कार्तिकेय सेनानायकों में
सागर हूँ जलाशयों में, महर्षियों में भृगु भी हूँ मैं

वाणी में ओंकार हूँ, यज्ञों में जप मुझको जान
अचल, अडिग जो भी भू पर, उनमें मुझे हिमालय जान

वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि मैं
गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ, कपिल मुनि सिद्धों में मैं

शस्त्रों में वज्र शस्त्र हूँ, कामधेनु गौओं में जान
संतति उत्पत्ति का हेतु, कामदेव भी मुझको जान

Tuesday, July 26, 2011

दशमोऽध्यायः विभूतियोग


दशमोऽध्यायः
विभूतियोग

अति गोपन ज्ञान यह मेरा, अति प्रभावी है यह वचन
तेरे हित में इसे कहूँगा, तू मेरा अति प्रिय हे अर्जुन !

देव न जानें न ही महर्षि, भेद मेरी उत्पत्ति का
 कैसे जान सकेंगे रहस्य, मैंने ही है उनको सिरजा

मैं हूँ अजन्मा और अनादि, जो नर इसे यथार्थ जानता
ज्ञानवान वह सब भूतों में, सब पापों से तर जाता

बुद्धि, ज्ञान, सम्मोह, क्षमा, सत्य और दम, शम दोनों
सुख-दुःख होना व मिटना, भय, अभय, मुझसे ही दोनों

समता और अहिंसा के गुण, तप, संतोष, दान भी मुझसे
यश, अपयश आदि का कारण, नाना भाव सभी मुझी से

सप्तमहर्षि, सनकादि भी, तथा मनु चौदह भी अर्जुन
मेरे ही संकल्प से उपजे, उनसे ही उपजे सब जन

परम ऐश्वर्य रूप विभूति, योग शक्ति को जो जानता
तत्वज्ञानी वह महापुरुष, भक्तियोग युक्त हो जाता

वासुदेव मैं कारण सबका, क्रियाशील है जग मुझसे  
श्रद्धा भक्ति से युक्त हुए जन, मुझ परमेश्वर को भजते

मन जिनका मुझमें ही लगा है, मुझमें गुणों को अर्पित करते
मेरी भक्ति की चर्चा से, मेरी महिमा से हर्षाते

मेरे ध्यान में मग्न हुए जो, प्रेमपूर्वक मुझको भजते
तत्वज्ञान उनको मैं देता, प्राप्त मुझे ही वे नर होते

उनके अन्तकरण में स्थित, कर कृपा अज्ञान को हरता
ज्ञान का दीपक जला के भीतर, मैं उनको मुक्त कर देता

परम पावन तुम हो केशव, ब्रह्म परम, परम धाम हो
ऋषिगण, आदिदेव कहते हैं, सर्वव्यापी अजन्मा तुमको  

 तुम दिव्य नारद भी कहते, देवल, असित, व्यास की वाणी
हे केशव ! तुम वैसे ही हो, तुमसे भी यही महिमा जानी 

Friday, July 22, 2011

नवमोऽध्यायः राजविद्याराजगुह्ययोग (अंतिम भाग)



नवमोऽध्यायः
राजविद्याराजगुह्ययोग (अंतिम भाग)

श्रद्धायुक्त सकाम भक्त जो, अन्य देवों की पूजा करते
वे भी अंततः मुझे ही पूजें, उचित विधि नहीं अपनाते

मैं ही भोक्ता सर्व यज्ञों का, मैं ही स्वामी हूँ उनका 
वे न जानें परम तत्व को, पुनर्जन्म होता उनका

पितृ पूजक, पितृ लोक को, देव पूजक देव ही पाते
भूतों के भी हैं उपासक, भूतों को ही वे नर पाते

पत्र, पुष्प, जल, फल, कुछ भी, प्रेम से जो अर्पण करता
शुद्ध हृदयी उस भक्त से वह, मैं स्वीकार किया करता

हवन, दान, तप जो भी करे तू, या कोई भी कर्म करे
भोजन रूप में ग्रहण करे जो, सब मेरे अर्पण कर दे

जिसके छोटे-बड़े कर्म सब, प्रभु को अर्पण होते हैं
युक्तचित्तवाले योगी वे, बंधन में न फंसते हैं

में हूँ सब भूतों में व्यापक, प्रिय-अप्रिय कोई न होता  
किन्तु भजे जो प्रेम से मुझको, मैं उसमें वह मुझमें बसता

यदि कोई दुराचारी भी, भक्त हुआ मुझको भजता है
दृढ़ संकल्प किया है जिसने, वह भी साधु बन सकता है

भक्ति से हुआ परिवर्तित, जो धर्म मार्ग पर चल पड़ता
हे अर्जुन, यह अटल सत्य है, मेरा भक्त सुरक्षित रहता

स्त्री, वैश्य, शुद्र, या पापी, चांडाल भी यदि कोई हो
मेरी शरण में जो भी आता, परम गति को प्राप्त हुआ वो

पुण्यशील, राजर्षि, ब्राह्मण, मेरी शरण में जो भी आते
कोई नहीं है संशय इसमें, परम गति वे सब हैं पाते

क्षणभंगुर यह मानव तन है, नित्य निरंतर मुझको भज
मुझमें मनवाला प्रेमी हो, निश्चित प्राप्त मुझे ही कर  

Tuesday, July 19, 2011

नवमोऽध्यायः राजविद्याराजगुह्ययोग (शेष भाग)


नवमोऽध्यायः
राजविद्याराजगुह्ययोग (शेष भाग)

अनभिज्ञ मेरे परम भाव से, मूढ़ मुझे मानव मानें
योगमाया से जन्मा हूँ मैं, इस रहस्य को न जानें

व्यर्थ है आशा, व्यर्थ कर्म है, व्यर्थ ज्ञान धारे हैं जो
मोहित हुए अज्ञानी जन वे, आसुर भाव के मारे हैं जो

कुन्तीपुत्र हे अर्जुन किन्तु, संत सदा ही मुझको भजते
दैवी भाव से भरे हुए वे, आदि कारण अक्षर है कहते

दृढ़ निश्चय उनका है अर्जुन, महिमा मेरी वे गाते
मेरे ध्यान में डूबे प्रेमी, नित्य स्तुतियाँ भी सुनाते

जो दूजे हैं पथिक ज्ञान के, निर्गुण की उपासना करते
अन्य कई जन विविध रूप में, मुझ विराट की पूजा करते

क्रतु हूँ मैं, यज्ञ भी मैं हूँ, स्वधा, औषधि, मंत्र भी मैं
घृत, अग्नि, हवन भी मैं हूँ, हे अर्जुन धाता भी हूँ मैं

फल कर्मों का देने वाला, माता-पिता, पितामह जान
ओंकार भी मैं ही तो हूँ, तीनों वेद मुझे ही मान

परमधाम हूँ, भर्ता भी हूँ, स्वामी भी, आधार सभी का
शरण भी मैं हूँ, सुह्रद अकारण, अविनाशी कारण सबका

शुभाशुभ देखने वाला, हेतु प्रलय का और उत्पत्ति
मुझमें स्थित होती सृष्टि, प्रलय काल में लय भी होती

मैं ही सूर्यरूप से तपता, वारिद मेघों से बरसाता
मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ, सत्-असत् का मैं ही ध्याता

वेदों में जिसका विधान है, ऐसे कर्मों को जो करते
पाप रहित सोमरस पायी, यज्ञों द्वारा स्वर्ग चाहते

स्वर्ग मिला करता है उनको, जब पुण्य क्षीण हो जाते
पुनः-पुनः काम्य को पाकर, मृत्युलोक में वे आते

जो अनन्य प्रेमी जन मुझको, निष्काम हुए से भजते
योग-क्षेम वहन मैं करता, वे निश्चिन्त रहा करते 

Monday, July 18, 2011

नवमोऽध्यायः राजविद्याराजगुह्ययोग

नवमोऽध्यायः 
राजविद्याराजगुह्ययोग

दोषदृष्टि नहीं है तुझमें, हे अर्जुन ! केशव बोले
परम गोपनीय विषय कहूँगा, मुक्त करेगा जो तुझे

सब विद्याओं का राजा, विज्ञान सहित ज्ञान यह उत्तम
है शाश्वत, गुप्त, अति पावन, श्रेष्ठ, धर्मयुक्त और सुगम

कर सुखपूर्वक इसका पालन, परम गोपनीय है यह ज्ञान
आत्मा की अनुभूति कराता, धर्म का यह अनुपम सिद्धांत

जिनकी श्रद्धा नहीं है इसमें, मुझको प्राप्त नहीं होते
मृत्यु रूप इस भंवर जगत में, वे सदा भ्रमते रहते

निराकार मुझ परमात्मा से, जग सारा यह व्याप्त यद्यपि
संकल्प मात्र से हैं सब मुझमें, मैं न उनमें हूँ तदापि

वे सब न मुझमें स्थित है, मेरी योगशक्ति है अद्भुत
मैं व्याप्त, भर्ता हूँ सबका, फिर भी उनसे रहूँ अलिप्त

जैसे वायु सदा गगन में, वैसे सब प्राणी हैं मुझमें
लिप्त नहीं होता आकाश, सदा मुक्त रहता पवन से

कल्पांत में सारे प्राणी, मेरी प्रकृति में ही समाते
नए कल्प के आदिकाल में, पुनः मुझसे रचे जाते

कर्मो के अनुसार मैं उनको, प्रकृति द्वारा पुनः पुनः रचता
निज स्वभाव से बंधे हुए वे, पुनः उन्हें यहाँ भेजता

किन्तु सदा आसक्ति रहित मैं, उदासीनवत् ही वर्तता
नहीं बांधते कर्म मुझे वे, मैं उनसे अलिप्त ही रहता

मेरी अध्यक्षता में प्रकृति, सर्व जगत को है रचती
सृष्टि चक्र यह घूम रहा है, प्रकृति स्वयं कुछ न करती 

Thursday, July 14, 2011

अष्टमोऽध्यायः अक्षरब्रह्मयोग (अंतिम भाग)

अष्टमोऽध्यायः
अक्षरब्रह्मयोग (अंतिम भाग)


अब मैं तुम्हें कहूँगा अर्जुन, उन दोनों कालों का विवरण
जिनमें जाकर पुनः लौटते, या नहीं होता पुनरागमन

जिस मार्ग में अग्निदेव हैं, शुक्ल पक्ष और दिवस काल है
नही लौटता योगी पुनः उनसे, जो उत्तरायण के छह मास हैं

धूम्र देव हैं जिस पथ पर, कृष्ण पक्ष और रात्रि काल है
चन्द्रलोक को जाता योगी, जब दक्षिणायण के छह मास हैं

प्रथम मार्ग से जो योगीजन, परमधाम को प्राप्त हो गए
नहीं लौटते पुनः धरा पर, मुक्त हुए वे मुझे पा गए

कृष्ण पक्ष में जो नर जाते, पुनः उनका आगमन होता
शुभ कर्मों का फल भोगते, स्वर्ग कभी न शाश्वत होता

इन दोनों को जान पार्थ तू, मोहित न पल भर को हो
समबुद्धि को प्राप्त हुआ तू, नित्य निरंतर योगयुक्त हो

योगीजन इस भेद को जानें, फिर न उन्हें पुण्य भी बांधे
यज्ञ, तप और दान धर्म का, कर उल्लंघन परम पद पा लें





Tuesday, July 12, 2011

अष्टमोऽध्यायः अक्षरब्रह्मयोग (शेष भाग)

अष्टमोऽध्यायः
अक्षरब्रह्मयोग (शेष भाग)

सब इन्द्रियों के द्वार रोककर, मन को रख हृदय केन्द्र में
प्राणों को ले जा मस्तक में, ऊँ कह जो देह त्यागे

ऐसा नर मुझे ही पाता, ब्रह्म का चिंतन जो करता
परमगति को प्राप्त हुआ वह, साधक मुक्ति को पाता

मुझ पुरुषोत्तम को जो भजता, सुलभ सदा उसे मैं रहता
नित्य निरंतर युक्त वह मुझमें, सहज उसे मैं हूँ मिलता

परम सिद्धि को प्राप्त हुआ वह, नहीं लौटता इस जग में
प्राप्त मुझे वह कर लेता, जो ध्याता है मुझको मन में

ब्रह्म लोक तक भी पहुँचा हो, पुनः उसे लौटना पड़ता
किन्तु मुझे जो प्राप्त हो गया, उसका पुनर्जन्म न होता

मैं हूँ कालातीत, शाश्वत, ब्रह्म लोक तक सभी अनित्य
काल के द्वारा सीमित हैं ये, परम ब्रह्म मैं ही नित्य

एक हजार युग की अवधि का, ब्रह्मा का इक दिन होता
एक हजार युग की अवधि की, ब्रह्मा की रात्रि होती

ब्रह्मा का जब दिन होता, सारे जीव व्यक्त होते हैं
ब्रह्मा की रात्रि काल में, पुनः जीव अव्यक्त हैं होते

यही भूत समुदाय पुनः पुनः, प्रकृति के वश में आता
प्रकट हुआ करता दिन में, रात्रि में विलीन हो जाता

उस अव्यक्त से परे एक है, परम विलक्षण इक अव्यक्त
परा, सनातन भाव श्रेष्ठ वह, नष्ट हुए सब वही शाश्वत

वह अव्यक्त कहाए अक्षर, उसे ही परम गति कहते
उस सनातन परम धाम को, प्राप्त हुए नर मुक्ति पाते

जिसके भीतर हैं सब प्राणी, जिससे यह संसार भरा है
उस सनातन परम पुरुष को, पाये वही जो भाव भरा है

Sunday, July 10, 2011

अष्टमोऽध्यायः अक्षरब्रह्मयोग



अष्टमोऽध्यायः
अक्षरब्रह्मयोग

ब्रह्म क्या है, हे पुरुषोत्तम !, और किसे कहते अध्यात्म
अधिभूत किसे कहते  हैं, क्या है, हे केशव ! यह कर्म

अधियज्ञ किसे कहते हैं, कैसे वह रहता है तन में
युक्तचित्त ज्ञानी जन तुमको, कैसे जानें अंतकाल में

परम अक्षर है ब्रह्म, हे अर्जुन !, जीवात्मा को जान अध्यात्म
भूतों का भाव उपजाये, ऐसा त्याग कहलाये कर्म

जो उपजे व नष्ट हो गए, वे पदार्थ अधिभूत तू जान
अधिदैव ब्रह्मा को कहते, अधियज्ञ तू मुझको मान

अंतकाल में मेरा स्मरण, करके जो नर प्राण त्यागता
मुझे प्राप्त होता निसंशय, हे अर्जुन ! मैं तुझे बताता

जिस-जिस भाव को स्मरण करेगा, प्राप्त उसी को वह होगा
 जिसमें जीवन भर रमा है, अंतकाल में वही रुचेगा

इसीलिए हे प्रिय अर्जुन तू, क्षण-क्षण में कर चिंतन मेरा
युद्ध भी कर तू मुझमें रहकर, निस्संदेह तू मुझे मिलेगा

एकीभाव से परमब्रह्म में, ध्यानयोग से युक्त हुआ जो
दिव्य पुरुष जो परम प्रकाशित, प्राप्त करेगा उस ईश्वर को

सृष्टि का यह नियम अटल है, जो भी ध्यान योग में रत
उसे प्राप्त होगा परमेश्वर, दिव्यपुरुष वह परम प्रकाशित

सर्वनियन्ता, सर्वज्ञ, है अनादि वह अति सूक्ष्म
सबको धारण-पोषण करता, अचिन्त्य चेतन सूर्यसम

विद्यावान, शुद्ध, चेतन, अन्तर्यामी जो भजता है
अंतकाल में स्मरण करता, प्रभु को प्राप्त हुआ करता है

भृकुटी के मध्य में अपने, प्राण टिकाकर ध्यान करे
निश्चल मन से अंतकाल में, दिव्य परम पुरुष को भजे

 सच्चिदानंद घन रूप परमेश्वर, अविनाशी वेदज्ञ कहते
आसक्ति रहित महात्मा, जिस परम पद को चाहते

परम पद की करें कामना, ब्रह्मचारी सदा मन में
उस श्रेष्ठ पद का विवरण, संक्षेप में सुन तू मुझसे 

Friday, July 8, 2011

सप्तमोऽध्यायः ज्ञानविज्ञानयोग (अंतिम भाग)



सप्तमोऽध्यायः
ज्ञानविज्ञानयोग (अंतिम भाग)

बुद्धिहीन जन मुझे न जानें, अविनाशी जो परम ईश्वर
मनुज भाव से मुझे देखते, मैं हूँ मन-इन्द्रियों से पर

मैं अदृश्य बना रहता हूँ, योगमाया का ले आश्रय
मैं अजन्मा, अविनाशी हूँ, नहीं जानता जन समुदाय

चले गए जो अब भी हैं, त्तथा भविष्य में जो होंगे
मैं जानता सब भूतों को, अश्रद्धालु ये नहीं जानते

इच्छा और द्वेष उपजाते, सुख-दुःख आदि द्वंद्व जगत में
घने मोह से हो आवृत, अज्ञानी रहते व्याकुल से

किन्तु सदा है श्रेष्ठ आचरण, निष्कामी, द्वन्द्वातीत जो
इच्छाओं से मुक्त हुए नर, भजते हैं मुझ परमेश्वर को

आकर शरण में करें प्रार्थना, जरा, मरण से मुक्ति चाहें
वे ही जानते परम ब्रह्म को, अध्यात्म कर्मों को जानें

Monday, July 4, 2011

सप्तमोऽध्यायः ज्ञानविज्ञानयोग (शेषभाग)


  सप्तमोऽध्यायः
ज्ञानविज्ञानयोग (शेषभाग)

त्रिगुणों से मोहित है जग यह, मुझ अविनाशी से अनभिज्ञ
नहीं जानता मुझको कोई, जन समुदाय है अल्पज्ञ

दुस्तर है मेरी यह माया, पार न उसको जग कर पाता
किन्तु जो केवल भजता मुझको, इसके पार उतर जाता

जिनका ज्ञान हरा माया ने, जो मूढ़ हैं ऐसे जन
तुच्छ कर्म करते जो आसुरी, भजते नहीं मुझे वे जन

चार श्रेणियाँ हैं भक्तों की, जो मुझ ईश्वर को भजते हैं
अर्थार्थी, आर्त्त, जिज्ञासु, ज्ञानी चौथे को कहते हैं

एकीभाव से मुझमें स्थित, अनन्य प्रेमी ज्ञानी है उत्तम
मुझे जानता तत्व से ज्ञानी, प्रिय मुझको मैं उसका प्रियतम

यूँ तो भक्त सभी उदार हैं, ज्ञानी मेरा ही स्वरूप है
मन, बुद्धि मुझमें है उसकी, मुझमें ही सदा स्थित है

आती दुर्लभ है वह महात्मा, जो सब वासुदेव ही माने
जन्मों- जन्मों कर तपस्या, ज्ञानी इस तत्व को जाने

जिनके मन में बसी कामना, ज्ञान हरा गया है जिनका
अन्य देवताओं को भजते, करे स्वभाव प्रेरित उनका

जिस देवता के स्वरूप को, भक्त सकाम पूजना चाहे
मैं उसकी श्रद्धा दृढ़ करता, पाता है वह फल मन चाहे

उस श्रद्धा से युक्त हुआ वह, पूजन करता है देव की
मैंने ही विधान किया है, प्राप्ति करे इच्छित भोगों की

किन्तु वह फल नाशवान है, अल्पबुद्धि वे नहीं जानते
देवों की पूजा कर साधक, मुझे न पा देवों को पाते  

चाहे जैसे ही भजते हों, मेरे भक्त मुझे भजते हैं
मुझे प्राप्त होते अंत में, ज्ञानीजन उन्हें कहते हैं