जीवन की अब शाम हो चली
कितनी पीड़ा, कितने दर्द
कितने जख्म छिपाए भीतर,
ऊपर से हँसता है मानव
डर-डर कर जीता है भीतर !
इक कांटा तो चुभता हर पल
‘मैं भी कुछ हूँ’ मुझे सराहो,
इस होने को कुछ तो अर्थ दो
दुनिया की यह रीत निबाहो !
होश संभाला जब से उसने
स्वयं को सदा माँगते पाया,
औरों की नजरों में खुद को
कुछ साबित करना ही भाया !
अपनी इक तस्वीर बनायी
मन मंदिर में उसे सजाया,
जरा ठेस जो लगी कभी भी
दिल आंसुओं से भर आया !
जीवन की अब शाम हो चली
खेल वही पुराना चलता,
कुछ न कुछ करके दिखला दें
न होने से मन न भरता !
न जाने क्या मिल जायेगा
नाम यदि रह भी जायेगा,
संतोषी यदि हुआ न अंतर
चैन न स्वर्ग भी दे पाएगा !
अनिता निहालानी
२९ अप्रैल २०११