Thursday, March 3, 2011

कोई

कोई

अदेखा, अनजाना कोई
बैठा भीतर, बोल रहा है
उन्हीं मौन से उपजे शब्दों को
कागज पर उकेरती है कलम !

कलम जाहिर है
वह छिपा है
पर छिपकर भी क्या
वही नहीं झलकता
कवियों की वाणी में
चित्रकार के अंकन में
शिल्पी की  कला में !

अदेखे अनजाने हाथ
बिखेरते हैं ओस की बूंदें
बहाते हैं जलधार
रंग जाते हैं आकाश नित नए रंगों से
बिखराते चाँदनी, सुगंध छितराते !

अदेखा, अनजाना कोई
थामता है हाथ
देता अभयदान
युगों से तापसों के ध्यान में आता
ज्ञानियों का ज्ञान वही
  रीत वही भक्ति की
राधा बन श्याम को
प्रीत की आवाज दे
देखो बुलाए वही !

अनिता निहालानी
२ मार्च २०११  



1 comment:

  1. सच कहा वो कोई ही तो सब कुछ है।

    ReplyDelete