Wednesday, January 12, 2011

अनंत

अनंत

बिन छुए ही
कैसा रोमांच  भर जाते हो
रेशे-रेशे में
श्वासों के साथ भीतर आ
प्रेम की अनुभूति कराने
हे परब्रह्म ! हे अनंत

देह, मन ,बुद्धि से परे मिले तुम
देह, मन ,बुद्धि को शोभित करते
स्वर्ण रश्मियाँ फूटें तन से
मन समता का वाहक बनता
बुद्धि स्थिर हो प्रज्ञामयी !

दर्पण में तुम्हारा ही रूप झलकता है
वह अनुपम दृष्टि भीतर तक बींध जाती
प्रेमिल मुस्कान चिर देती हृदय को !

बिना याद किये
तुम हर क्षण आते हो स्मृति में
तुम्हारा घर बन ग्या है अंतर्मन
स्फटिक सा स्वच्छ चमचमाता
छलकता घट जहाँ रस का
बिखरता अमिय प्रेम का !
हे अव्यक्त ! हे अनंत !

अनिता निहालानी
१२ जनवरी २०११  

No comments:

Post a Comment