Thursday, October 7, 2010

भावांजलि

कुछ वर्ष पूर्व मैंने कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित गीतांजली का अनुवाद पढ़ा तो हृदय झंकृत हो गया, सहज ही कुछ पंक्तियाँ उतरने लगीं. उन्हीं को इस ब्लॉग में आप सभी के लिये लिख रही हूँ. यह भावानुवाद कहा जा सकता है, शायद वह भी नहीं, क्यों कि किसी किसी कविता में कुछ ही पंक्तियाँ बन पायीं क्योंकि यह सप्रयास नहीं लिखा गया. जैसा मैंने गीतांजली को समझा वही लिखा है, ,

प्रभु, उदार तुम ! कई जन्मों में
अनगिन बार भरा होगा पट
नित नवीन उपहार दे रहे
किंतु रिक्त है अब भी यह घट

मेरे गीत रिझाते तुमको
तभी हृदय भावों से भरते
जितना प्रेम व्यक्त ये करते
तुम उतना आनंद लुटाते!

2 comments:

  1. anayas likha jaa raha hai ,isliye shresth hi hogi sreejansheelta!rest assured!!!!
    bahut sundar abhivyakti bhaavon ki.......
    regards,

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  2. आभार एवं धन्यवाद! अच्छा लगता है जब आप जैसा कोई सहृदय पाठक हौसला बढ़ाता है.

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